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पर शास्त्रीजी से हमारा घोर भत-भेद है। उनके 'मारवादी- माकी भनेक बातें हमें मृदासद भान पड़ीं। परन्तु यह सब होते हुए भी हम उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा, उनकी मौलिक सूझ, उनकी भाषा के बोज, उनकी मस्ती-भरी वाक्य-रचना भौर उनकी लेखनीकी धमक पर रटि-विपर्यय नहीं कर सकते। साथ ही अन्य बड़े आदमियों की निर्बलतामों से तुलना करने पर हमें शास्त्रीनी में ऐसे किसी मलौकिक भय की यात दिखाई न पड़ी। उनके इन्हीं गुणों के कारण हम उनकी स्तुति करते हैं, और उनके समस्त विरोधियों से हम विनीत प्रार्थना करेंगे, कि वे एक बार निष्पक्ष होकर शास्त्रीजी की मेधा का अनुभव करें, और उन्हें उनके योग्य सम्मान प्रदान करें। X x X X 'अमर अभिलाषा' सर्वथा मौलिक है। सिर्फ़ एक परि- पछेद में अंग्रेजी के एक उपन्यास की सूचम-सी पाप पड़ी है। इसे वे स्वीकार करते हैं। विनीत, ऋषभचरण जैन