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उपन्यास १३५ देखे थे। उसने कहा-"यावू ! तुमने यहा ग़ज़ब किया, पान का इनाम पूरा-पूरा लूंगी।" हरगोविन्द धवरा रहा था। उसने कहा--"तू इसे यहाँ से ले तो जा बाबा, इनाम क्या भागता है ?" कुनिया ने हरगोविन्द को बाहर भेन दिया, और पंखे से भगवती की हवा करने लगी। कुछ देर में भगवती की तबीयत कुछ ठीक हुई, तो वह गिद्दगिदाफर कहने लगी-"निया ! मुझे घर पहुंचा । हाय ! मैं लुट गई !" "घबराओ नहीं, कोई कानों-कान न नान पायेगा।" भगवती कुछ काल चक चुप बैठी रही। श्रव एकाएक वह उठ खड़ी हुई । छनिया ने कहा-"कुछ देर और ठहरो।" पर भगवती ने एक न सुनी। वह सीधी अपने घर चली ।