उपन्यास १३९ विना न जाने यहाँ तुम्हें किस कष्ट में गिरना पड़े । तुम अवश्य ही विनोद को लेकर घर चली नायो । में तुम्हें छोड़ता जाउँगा, वहाँ निश्चिन्त रह सकोगी।" "नहीं स्वामी, मैं आपके साथ ही रहूँगी। प्लेग के भयानक दिनों में मैं क्या आपको अकेला जाने दूंगी?" "यह वो सब ठीक है, पर स्त्रियों को लेकर सर्वत्र तो नहीं घूमा साता । फिर प्लेग-प्रबन्ध का भार,-यह तो सोथो । अच्छा, तुम्हारी बात रहे, पर बच्चे का तो नयाल करो।" स्त्री पति से लिपट गई । उसने रोते-रोते कहा-"मुझे श्राप अकेली म छोदिये। मैं हाथ जोड़ती हूँ। नहीं सरे, इस्तीफा देदो।" "इस्तीफा दे देना अपमानजनक है । मैं ज़िम्मेदार अफसर हूँ। क्या मुझे ऐसे नाजुक मौके पर इस्तीफा दे देना उचित है ? मुझे दुःख है, कि तुम इस समय ऐसी अधीर होरही हो।" थोड़ी देर तक स्त्री चुपचाप रहलती रही। वह अपने हृदय के दुःख को दबाने की चेष्टा कर रही थी। अन्त में उसने कदा करके पति का प्रस्ताव स्वीकार किया। इन दोनों पति-पत्नी का परिचय भी देना होगा। पति का नाम है, वावू दीपनारायणसिंह, और पत्नी का कुमुद । आप विष्टी-कलक्टर हैं। प्रातःकाल ही दोनों ने यात्रा प्रारम्भ कर दी। गोद का शिशु और एक नौकर साथ था। रेल में भगदड़ मची थी। प्लेग के कारण भीड़ का ठिकाना न था। तीसरे दर्ने में मुसाफिर ठसाठस भर रहे थे। बावू साहब
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