पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१५०

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१४६ अमर अभिलाषा में आने ही यह फिर पति के पलँग पर भा-बैठी। वह कई दिन से सोई न थी, मृगे और नींद उस पर थाक्रमण कर रही थी। उसी भाँखें मपी पड़ती थीं, और सिर लटका पड़ता था। सभी लोग उससे ज़रा सो रहने के लिये श्राग्रह 'फरते थे, परन्तु इस समय उसका सौभाग्य-सिंदूर पुंछने की घड़ी निकट रही थी। सदा के लिये उसके प्रिय पति की जुदाई का समय बारहा था। उसके जीवन की तमाम आशा और भरोसों का सुख-सूर्य वने- वाला होरहा था । वह सोती कैसे ? पलक भी कैसे मारती? न- जाने कब वह घडी आजाय, और कब उसके जीवन में वह दारण क्षण टूट पड़े ! अन्त में वह क्षण भी उसी के 'नेत्रों के देखते- देखते आगया, और उसके परम प्रिय पति ने अपनी अन्तिम श्वास पूरी की ! कुमुद एक बार एकाएक खड़ी होकर चीख उठी, फिर वह धाम से धरती पर गिर गई । डॉक्टरों ने समझा, कि यह भी मर गई । परन्तु फिर देखा, साँस चल रहा है। वे उसे होश में लाने के उपचार करने लगे। एक घण्टे में उसे होश श्राया। होश में आते ही प्रथम वो कुछ देर विमूद-सी बनी बैठी रही। उसने चारों तरफ़ आँखें फाद-कादकर देखा, मानों वह उस भयानक दुर्घटना को भूल गई थी, पर जब उसकी दृष्टि पति की लाश पर पड़ी, तो वह एकदम कपड़े फाडने और पागल की वरह असम्बद्ध वकने लगी। उसकी दशा देखकर देखनेवालों का फलेना मुंह को आता था । पर उसे समझाना-चुमाना सम्भव ही न था। दो-तीन स्त्रिये उसे कसकर पकड़े हुई थींयह बीच-