पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१६६

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१६२ अमर अभिलाषा - मुझे क्या खवर थी, इसीलिये तेरे पैर इन घर में पड़े हैं ! हाय हत्यारी, तेरा सर्वनाश होजाय !" इतना कहकर गृहणो विनख- विलखकर रोने लगी। हरदेई ने कहा-"मैं रोज़ देखती थी, जब देखो, खुसुर- फुसुर; जब देखो, तभी जाने क्या-क्या मन्सूवे गाँठा करती थी। हमें क्या रखबर थी कि यह ग़नव ढाया जारहा है !" इतने में हरनारायण ने माता का हाथ पकडकर कहा-"चल उठ यहाँ से ! देखें-भगवान् की क्या मरज़ी है।" वृद्धा ने देखा कि पुत्र के मुख पर अब कटोर भाव नहीं है, उसके नेत्रों में आंसू छलछला रहे हैं। वृद्धा उठ खडी हुई। सब कमरे से चल दिये। पाठक, भगवती का क्या हुआ ? उस समय वह सभी के क्रोध और घृणा की, पात्री थी। उस घृणित अपराधिनी को कोई क्यों आँख उठाकर देखता ? किसी को क्यों उस पर ममता घाती? वह मरी है या जीती है-इसे जानने की कौन चिन्ता करता ! मार से उसकी चमडी उघड़ गई है, मांस निकल आया है, अधमरी होगई है, प्यास से कण्ठ सूख रहा है, प्राण कएठ में आरहे हैं। परन्तु यह सब रहें, फिर भी वह किसी की दया और अनुकम्पा की थधिकारिणी नहीं है। वह पापिनी नो है। पापिनी पर दया, और महानुभूति दिखानेवाला भी पापी समझा जाता है। चाहे वह उसका माँ, वाप, भाई, बहन ही क्यों न हो । पाठक, मनुष्य-समान की सभ्यता का ऐसा ही नियम है।