पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१७७

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उपन्यास १७३ "मैं तो न देखेंगा; मेरी आँखें दन्द होने पर जो हो, सो जयनारायण की स्त्री ने यात फाटकर कहा-"इन बहकी वातों में क्या घरा है ? काम की बातें करो, जिससे मामला वरायर होजाय । जो हुथा, सो हुधा, अब इस यात पर धूल दालना चाहिये । कुल-कान-नाज सब गई-चुल्लू-भर पानी में डूब मरने की यात होगई । भगवान् ! यह क्या हुआ नयनारायण ने गुमलाफर कहा-"क्यों नाहक भगवान्- भगवान् चिल्ला रही हो? तुम्हारा हो तो पाप है ! अब भगवान को पुकारने में क्या है ? जैसा किया, वैसा मोगो।" "मैंने क्या किया?" "भगवती के पुनर्विवाह का नाम सुनते ही तो यिन्लू के लंका की तरह उबल पड़ी थीं!" "और सुनो ! अधरम की यात कैसे मानी जासकती है ?" "प्रय तो सुमने धर्म की रक्षा करली? अय तो तुम्हारा दूध- धोया धर्म फूल उठा ?" "हमारी तकदीर फूट गई-कपाल में जो लिखा था, सामने भाया" "तो उसे भुगतो-अव यह हाय-हाय क्या है ?" गृहिणी ने करुण दृष्टि से पति की थोर देखकर कहा-"कुछ उपाय करो" "क्या उपाय करूं ?" यह कहकर जयनारायण ने नमी से