'उपन्यास १७५ ये। कुछ ठहरकर उसने कहा-"मसे तो अच्छा यही है कि शहर के डॉक्टर-हकीम को कुछ लालच देकर काम निकाल लेना चाहिये।" "शहर के डॉक्टर-हकीम ! येश, उनका मुंह वो यहा फैला हुआ है। इतना रुपया कहाँ है ? (कुछ पास खलाफर ) वदर है खूपचन्द चौधरी को ? २००) ले लिये, और लड़की को घर खुलाफर इज्जत-शायरू विगाटी। फिर पुलिस में खबर फरदी। देखा था ? फितना धुक्कम-फजीता हुआ था ?" हरनारायण एक-दम हद-युति हो, यैठ रहे। बड़ी देर तक उनके मुख से शब्द न निकला। उनकी घाँखों में फैधेरा छारहा था । जयनारायण बोले-"इससे वो गोपाल पाँठे से ही काम लेना ठीक है।" "तो तुम्हीं यह काम करो। मेरा तो साहस नहीं होता।" जयनारायण कुछ देर ठहरकर और ठण्डी लामलेफर योले- "अच्छा बेटा, अपनी तुलच्छनी बेटी के लिये यह काम चूड़ा पाप ही करेगा । तुम सुख से थाराम करो।" इतना कहकर हृदय के अगाध दुःख को छिपाने के लिये जयनारायण वहाँ से उठ चले उनकी स्त्री अब तक चुपचाप बैठी, यात सुन रही थी। अव उसने भी एक सांस खींचकर कहा-"हा भगवान् ! तुमने यह क्या किया?" जयनारायण उसकी 'आह' सुनकर लौट खड़े हुए, और क्रोध से पागल होकर बोले-"हत्यारी ! तू बहुत 'भगवान्-भगवान्'
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