पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१८३

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उपन्यास १७९ दोपहर ढल चुका है । एक चेला बैग है । पाँडेती धीरे-धीरे गुनगुनाते हुए पानी में भङ्ग धो रहे हैं। ऐसे ही समय में नयनारा- थण ने उनकी कुटी में प्रवेश किया । जयनारायण को देखते ही उन्मत्त-जैसे नेत्रों को उनकी ओर धुमाकर पौडेनी ने कहा- "श्रो हो, दीवाननी ! पात्रो । अरे गोविन्दा ! ज़रा एक चटाई तो उठाले" नयनारायण संकुचित भाव से प्रणाम करके आप ही एक चटाई खींचकर बैठ गये, और बोले-"नाहक क्यों तकलीफ देते हो ? मैं अच्छी तरह बैठ गया हूँ।" पाँडेनी ने हँसते-हँसते कहा- "अच्छा! अच्छा ! आज किधर रास्ता भूल गये ? जयनारायण ने हृदय का उद्वेग छिपाकर कहा-"कन अमावस्या है न; हरनारायण की माँ ने जिद की, कि पडिजी को नौता दे श्रामो।" पाँडेनी उठाकर हँस पड़े, और बोले-"योहो ! इतनी-सी बात ! यह या किसी से कहाकर भेज देते, तो मै आप-ही चला पाता।" "मैं, इधर माधोदास की ओर चला था । लोचा, कि लगे- हाय इस काम से भी निपट चलूँ। दर्शन ही होंगे।" पौडेजी फिर हँसकर बोले-"दर्शन तो महन्त-महात्मा के होते हैं वावा, हम तो आपके दास हैं। जब याद करो, तभी ज्योड़ी पर ना पहुंचे।" "भाप क्या किसी महन्त से कम है ?" यह कहकर नय. -