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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१८५

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उपन्यास १८१ का है, और यह तो मेरा घर है।" इतना कहकर और जान लेकर चे भागे । उनके जाने पर पाँडेनी एक आँख उनकी ओर घूरते रहे । उनके लाल-लाल मदमाते नेत्र खुशी से फूल उठे थे। इतने में हरिया ने माफर कहा- 'गुरू, श्रान यह खूसट क्यों आया? कैसा नौता है ? भाज तक तो माला गलियाँ देता था!" पानी ने चेले की ओर मुककर कहा-"इसी के घर न दो-दो हथिनी पल रही हैं? अच्छा, कल देखा नायगा। भय मार लिया है !!" चेले ने धीरे-से कहा-"अब देखेगा गुरू के हतकण्डे ! बड़ी लड़की बड़ी घटको है-उसी पर हाथ साफ़ करना चाहिये। (कुछ पास सरकार ) सरनीवाले गोविन्दा से उसकी नैन-सैन है। बस, एफ इशारे में डोरी पर चढ़ जायगी।" महात्मानी ने दबी ज़बान से पूछा-"सच ! यह कैसे मालूम हुआ ? चीज तो दिया है, पर उस दिन तो रॉड गालियां देने लगी थी। सुम्हें च्या गोरिन्दा ने कुछ कहा था?" "वह साला बढ़ा विज्जू है । उसके पेट से बात नहीं फूटती। पर वह छलिया ही उसकी भी खवर नाती है।" इतना फहकर उसने मद-भरी दृष्टि से पाँडेनी की ओर देखा। पाँडेजी फूलकर कुप्पा हो गये थे। उन्होंने उमंग से हरिया के हाथ-में-हाय मारकर कहना ही चाहा था, कि पीछे से किसी ने कहा--"जय शंकर वावा फो!"