उपन्याम १८३ - "उन्हें बुलायो तोरा गुरु की अमृत तो दे दूँ !" इतना फार उन्होंने एक पोटली निकाली। जपनारायरान अत्यन्त पिनय मे फहा-"नगे! भगो! यहाँ थामो! देगो, पादेनी क्या देते हैं। नारायणी चा में फाम कर रही भी, पिता फी भावाज सुनने ही पासी हुई। पदिजी ने घर में उसके माथे पर टीका लगा दिया। फिर चारों तरफ घूरपर देखा, और महा-"घरे! दूसरी कहाँ गई परी श्रा जल्दी-लं, गुरु का परशाद लेजा।" भगवती भीतर उपचाप उदास यो यो। अन्त में वह धीरे-धीरे सफुचते हुर, सामने था खड़ी हुई। उसे देखते ही पाजी ने कहा -"धरी यापली! तू भय तया हाँ थी? ले !" फहकर उपके माधे पर भी टीका लगा दिया, और जयनारायण से फहा--"यह नदी पदी नीधी-सादी है, दीवानजी।" नयनातायण भगवती की माती देस, मुंह फेरफर पड़े थे। थर उन्होंने यात टालने को कहा-"तो अब भोजन फरें; देर हो गई है।" फइपर वे चौके की ओर लपक गये। इससे पाँडेली फा कटान तथा संक्त, जो उन्होंने भगवती से फिया, वेन देख सके। भगवती भी घबराफर भीतर चली गई। पाँडेनी मुस्कराते हुए रसोई की तरफ़ बैठे। भोजन के उपरान्त अच्छी दक्षिणा पाकर, पाँडेली चलने को ही थे, फि नयनारायण ने कहा -"योड़ी देर बैठक में उलर विधान पीलिये न?" पादेवी बोले-"यस, अब चलने दो; फिर देखा जायगा।" 1
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