पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१९८

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१९४ अमर अभिलाषा तुम अब प्रथम से भी अधिक निफ्टं समझती हो। नीनो, जैसे बने, उनका दर्शन मुझे फरादो।" कुमुद कुछ देर चुपचाप इस विकल वालिका की यात सुनकर सोचती रही । उसने लोचा, इस प्रेम, और आनन्द की मूर्ति पर वैधव्य शाप होकर गिरा है। यह उसका तेज सहन नहीं कर सकती। वैधव्य का धर्म सहन करने योग्य क्षमता उसमें नहीं है। उसने कुछ न कहा । केवल गले से वह भन्तान पुष्प माना निकालकर मालवी की थोर देखने लगी। मालती ने उसे रोककर कहा-"उसे जीनी, गले ही में पहिने रहो-श्रमी मत निकालो । मैं हाथ नोदती हूं।" कुमुद ने कहा-"सुन मालती, देवता के भोग को मनुष्य नहीं ग्रहण कर सकना । यह मनुष्य का अक्षग्य, अपराध है।" मालती इसका अर्थ नहीं समझी। उसने कहा-"देवता का भोग क्या?" "यह माला; यह देवता के निमित्त की पवित्र वस्तु है। क्या इसे तूने उन अदृष्ट पति के नाम पर ही नहीं बनाया था, जो तेरी नस-नस में रम रहे हैं, पर जिन्हें तू देख नहीं पाती-जिन्हें देखने को तू कितनी ध्याकुल है ?" मालती ने स्वीकार किया ! उसने कहा-"उस अदृष्ट मूर्ति को किसी भांति न देखकर मैं यह माला तुम्हारे लिये लाई हूँ, क्योंकि उसके बाद तो फिर तू ही है।" ने माला को आँखों से लगाया, और कहा . .