पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२४ अमर अभिलाषा स्थान भी सुरक्षित न था। कोमल और निरुपाय वालिका मालती उस रास्ते नीचे उतरने का साहस न कर सकी। सध्या होगई थी, और उसकी कोठरी में अन्धकार था। उसे द्वार खुलने की कुछ बाइट प्रतीत हुई। पहले उसने सोचा, वह कुटिल मालिन खाना लेकर पाई होगी, जो यहाँ उसकी देख-रेख पर नियत है, और जिससे वह हजारों मित्रते कर चुकी थी। पर जब उसने साक्षात् पिशाच के समान काली- वायू और उससे भी घृणास्पद रामनाथ को लैम्प हाथ में लिये, मुस्कराते हुए कोठरी मे पाते देखा, तो वह एकदम सकने की हालत में रह गई । परन्तु समय और अवसर मनुष्य को साहस प्रदान करता है। मालती ने भी साहस का संचय किया। उसने भयभीत स्वर में कहा-"मैं हाथ जोती हूँ, मुझे यहाँ से निकाल. दो।" कालीवाबू ने ज़ोर से हंसकर कहा-"समझ गया, अब सीधी राह पर भागई मालूम होती है। रामनाथ, तुम ज़रा बाहर बैठो। लैम्प को यहीं रखदो । मैं देखता हूँ, कि यह पालतू दिल्ली- कितनी उल-कूद मचाती है।" रामनाथ लालटन यहीं रखकर चुपचाप बाहर चला गया। कालीप्रसाद ने कमरे का द्वार बन्द करते-करते कहा-"तो भव. राजी हो?" कालीप्रसाद ने खूब शराब पी हुई थी, यह मानती मना- मास ही समझ गई। वह पर्लंग से पीठ सटाकर चुपचाप इस. 1 ।