पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

'२५२ अमर श्रमिलापा "वह साती पर घर बैठा, और मुंह में कपड़ा ईस दिया।" ""कोई गवाह ?" "गयाद कौन होता?" "विना गवाह के मुकदमा कैसे बनेगा ?" "भय यह मैं क्या लान् ?" "उसकी और मुम्हारी फुप पारानाई तो न थी?" "यह मे नही पताने की "लो, षय तक मय यात म पतायोगी, हम समगे क्या, और लड़ेंगे क्या?" "पाशनाई थी, सभी तो।" "कय से माता या?" "तीन साल मे।" "भाड़ा क्यों हुपा ?" "पोरों के भाने पर।" यकील साहय मिझके । फिर कहा-"युरा न मानना । बात समझने के लिये प्रस्ता है। तुम कौन ज्ञात हो ?" "यनिया" "स्या पेशण कमाती हो?" "पेशा क्यों कमाती! अपने घर रहती हूँ।" "घर में भौर कौन है?" "मैं तो अकेली " "रहनेवाली कहाँ की हो?"