पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२६०

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२५४ अमर अभिलाषा सब रेल में बैठकर यहाँ भागई। तीन साल से यहाँ रहती थी।" वकील साहेब ने सब सुनकर कहा- "यहाँ झगड़े का यही कारण है, जो वताया था, और कुछ १" "कुछ दिन से उसका मन मुझसे उतर गया था। वह एक और लड़की को फुसलाने को कहता था-पर वह हाथ न भावी थी, इस पर जय घन-चत्र चलने लगी, तब मैंने भी अपना रास्ता देखा । बात यही हुई।" धकील साहव बोले- "अच्छी बात है, मैं मुकद्दमा लडूंगा। गवाह का प्रबन्ध भी कर दूंगा। मगर फ्रीस क्या दोगी?" "मेरे पास कुछ नहीं है।" "वाह, फिर काम कैसे चलेगा?" "मैं हर तरह ख़िदमत में हाज़िर हूँ।" वफील साहेब भेद-भरी आँखों से उसे देखने लगे। बोले- "एक बात मानोगी ?" "क्या ?" "मुसलमान हो जाभो" "उससे क्या होगा?" "हम घर में डाल लेंगे।" "मेरा धर्म-ईमान ?" "लो, अभी तुम धर्म-ईमान को साथ-ही लिये फिरती हो?" "मौर को फिर धोखा दिया ?" 1