अमर अमिलापा 'मत्ये पर साँपन भी है। ऐसी लुगाई दायन का अवतार होती है।" शिवचरणदास की खी योली-"एसी लसमखानी का क्या मुंह लेकर पूक ? रामजी न दे किसी को ऐसी यह चारा भले ही स्खे।" गृहिणी पोली-"जब से थाई-मैंने इसे हंसते-योलवे न देखा । सदा रोती रही। सदा माया सिता रहा । गोपाल घर याता, वो सिकुड़फर कोने में घुस जाती-क्या मनाल, जो कभी पानी तो पिला दे ! उससे इसे ऐसी नफरत थी, कि जैसी किसी जन्म के दुश्मन से होती है । अन्त में इसको माया फल हो गई-उसे निगल ही गई। श्रय दोनों दिनाल कैसी मटकती ‘फिर रही है ! पेट में भाग लग रही है।" यह कहकर गृहिणी ने फटफटाकर एक लात उसके समाई । हतभागी यालिका तल- मलाकर धरती पर गिर गई । अभी अपने दुःख से रोने का भी उसे अच्छा ज्ञान नहीं हुषारा!! तीसरा परिच्छेद 00:- संसार सो रहा था। आधी रात ना की थी। सब तरफ सबाटा था, परन्तु एक टूटे हुए मकान के दूसरे खण्ड में एक छोटी-सी कोली में चटाई पर बैठी हुई युवती, दीये के भजे प्रकाश में एकमन होकर, कुछ सी रही है। तेल-बत्ती की कमी
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