अमर अभिलाषा
- “उसने कहा-"ले आई? मैं तो फिकर में पड़ गई थी, कि शायद पायदा पूरा न फरे । यह अच्छा हुआ नहीं तो एक कौड़ी भी मजदूरी न मिलती। ला दिखा, कैसा सिया है ?" युवती में •रते-डरते पोटली खोलकर सामने रखदी। कुछ देर उलट-पलटकर "देख, और मन का भाव दयाकर उसने वन में कुछ दोष निकाल्ने । •ब कहा-"र, रख बा ! २) मजदूरी हुई न?" युवती ने सूखे फरठ से फहा-"सिर्फ दो रुपये दस पाने ?" गृहिणी ने भी चढ़ाकर कहा-"और नहीं तो क्या ?" "मैंने पाठ दिन-रात महनत की है।" "तो मैं भी तो मजदूरी देवी हूँ। कोई येगार में तो नहीं 'खिलवाती शाम को मजदूरी ले जाना।" युवती ने भयभीत मेत्रों से देखते हुये कहा-"अगर अभी " देवी, नो यदी कृपा होती। घर में कुछ भी नहीं है।" इस पर भौं सिकोड़कर गृहिणी बोली-"वह वो मैं जानती है, तुम लोग वदी बोधी हो-घड़ी-भर भी धीरज नहीं होता। संदेर-सबेरे भी कहीं देन-लेन होता है? युवती कुछ बोली नहीं। वह धीरे-धीरे चल दी। बाहर "माफर उसने आँचल से आँसू पोंछ लिये। वह टूटे हृदय से नीची नजर किये सीदी से उतर रही थी। पीछे से किसी ने उसके कन्धे पर हाय धरा । उसने लौटकर देखा, एक युवती है-उसने घण-भर खड़ी होकर उससे मौत मिलाई । मानों-मन-ही-मन यूछा-तुम यौन हो उसने कहा-