पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३२१ उपन्यास www सब ने कहा-"हम तो साहब, सब के साग हैं। सय जावेंगे, सोहम भी नावेंगे, नहीं तो नहीं।" इतने में एक बोले-"क्यों गुरू! इसका परादत कुछ नही" परिततली बोले-"पराहत तो है । तो है लो, शास्तर में है क्या नहीं ?-गंगा-स्नान और सौ घालण-भोजन, चांदी की दतिया।" "चाँदी की दच्छना में तो क्या मन्देश है-विट्ठलदासजी क्या ऐस-वैसे भादमी है ? और गंगा-स्नान में भी एस पापा नहीं। रही सी बालयों की, लो इतने तो हम हैं ही, बाजी क्या नहीं मिल सकते?" "निल क्यों नहीं सको, पर ये लोग चाह, तभी तो हो सकता है।" इस पर महाराज बोले-"तो मुक काम न करें, उयर नपर मेनदें, कि तुम यह सब परास्त करो, गे हम जीन सकते हैं।" भोंदू शर्मा फौरन् उठ खड़े हुए। बोले-"इसमें क्या देर लगती है ? हम अभी कहे पाते हैं। देखते भी आयेंगे, कि भोजन में क्या देर है " पस्तितजी कहने लगे--"नहीं नहीं, ऐशा जो है सो, नहीं। वे हमें खुद चुनावं, तो जाना चाहिये।" "जैसी पंचों की राय " कहकर देवता के गये ।। अब समय की प्रतीक्षा होने लगी। कोई तो अंगोला विधा, -