३२४ अमर अभिलाषा और क्षण भर में वही श्रमागिनी, कुलच्छनी, खसमनानी अस- हाय वालिका, जिसने अपमान, तिरस्कार में कितने दिन काटे थे; -सुहागिन होगई, दुलहिन दन गई। वह पीत-वर्ण मुख, वह अस्थि-पिआर अन्त में सुहाग के शुभ-मुहूर्त में रंगीन, नवीन वस्त्रों के आवरण में सुरक्षित होगया। यह सामाजिक संगठन, यह नैतिक बल का तिलस्म था, जो लोगों के सामने था, जिसने भाग्य को, प्रारब्ध को, विपत्ति के दुर्दैव को लात मारकर भगा दिया था, और उसके स्थान पर मान्य, प्राणा, सुख, उछाह की वर्षा कर दी थी। एक बालिका की गोद, नो अन्धकार और निराशा से टूटी पड़ती थी, प्रकाश और घाशा से भर दी गई थी। यह पुण्य उदारता की प्रति-मूर्ति विठ्ठलदास ने लूटा। नव देश में ऐसे दीन-दयाल, पर-दुःख-दुखी पुरुष पैदा हों, तो एक क्या, ढाई करोड़ कलपती हुई धारमा यात-की-बात में शान्ति और पवित्रता का जीवन प्राप्त कर सकती हैं। पर जीवन-दाता बनना हर किसी का काम नहीं। विठ्ठलदास-जैसे वीर-ही सच्चे जीवन-दाता कहा सकते है। विवाह सम्पादन होगया, और उपरोक्त प्राह्मण-मण्डल आप- ही-श्राप 'वाह, वाह-बहुत अच्छा' की ध्वनि से समय-समय पर अपनी तुच्छता का परिचय देता रहा। भन्त में विट्ठलदास ने सव को सत्कार-सम्मान से भोजन कराया, और एक-एक रुपया दक्षिणा देकर विदा किया । नारायणी बड़े घर की दुलहिन बनकर चली।
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