पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/७४

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अमर अभिलाषा मुसकराने की चेष्टा की, पर चेष्टा व्यर्थ गई। उनकी घाखों में आँसू छलछला ही आये: रामचन्द्र ने सहानुभूति से उनका हाथ पकड़कर कहा-- "दीवानजी ! ऐसा क्यों दिलगीर होवे हो ? भोप बुख़ुर्ग आदमी है, ईश्वर की नो इच्छा थी, सो होगई, अब तो उसका मूल- परिशोष जो हो सके, फरना चाहिये । इस तरह करने से कैसे बनेगा ?" "इसका परिशोध ? भाई साहब, जो इसका परिशोध हो सकता, तो प्राण देकर भी करता । पर अय क्या हो सकता है। सचमुच उसका भाग्य फूट ही गया है । न-जाने पूर्व जन्म में उसने कैसे-कैसे पाप किये थे?" रामचन्द्र उत्तेजित होकर बोले-"दीवाननी ! कैसे दुःख की बात है, कि आपके मुख से भी ऐसी पोच और रही घात सुनवा' हूँ। मनुष्य अपनी कुटेव और अन्ध ब-विश्वास द्वारा हानि उठाता है, पर सब दोप विधाता और भाग्य को देता है। यह कैसे अन्धेर' की बात है ! आँख लग गई, रेल छूट गई–यस, किस्मत में पही लिखा था। किसी की गाँठ कतर ली, पकड़े गये- पह भी किस्मत में लिखा था। यह केवल फायरों, अपोकों और मूखों का उत्तर है। कोई किसी का मूल करके कहे, कि इसका मरना यों ही लिखा था, वो क्या सरकार छोर देगी। इसी से क्या उसका पिण्ड छूट जायगा! खूब ! 'माप बदकारी करें, नाम ले मलाह का! एक ही बदज़ाक