पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/५०

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४६ अलंकारचंद्रिका नाम पाहरू, दिवसनिमि ध्यान तुम्हार कपाट । लोचन निज पद जंत्रिका प्रान जाहि कहि बाट ।। यहाँ नाम, ध्यान और लोचन का रूपक पहरू, कपाट और यंत्र (ताना ) में किया गया है किन्तु 'प्राण' का म्पक, जो कैदी ( बंदी ) से होना चाहता था, नहीं किया गया। अर्थ- कर्ता अपनी बुद्धि मे लगा लेता है। (२) निरंग रूपक वह कहलाता है जिसमें केवल उपमान के प्रधान गुण का आरोप उपमेय पर किया जाता है। जैसे- दो०-अवसि चलिय बन गम पहं भरत मंत्र भन्न कीन्ह । सोक सिंबु बूड़त सहि तुम अवलंबन दीन्ह ॥ यहाँ शोक को समुद्ररूप से मान लिया है, उसके और अंग नहीं कहे गये । इसी प्रकार और भी जानी । यथा- (१) तुलसीदास यह विपति बागुरो तुहि सौं बनै निवरे। यहाँ 'विपति' पर 'वागुर' ( जाल ) का आरोप है। (२) महामोह मृगजलसरिता मह बोरयो बार्गह बार । यहाँ 'मोह' पर 'मृगजलसरिता' का आरोप है। (३) परंपरित रूपक वह कहन्नाता है जहां मुख्य रूपक का हेतु एक और ही रूपक होता है, अर्थात् मुख्य रूपक एक और ( अंतर्गत ) रूपक पर निर्भर होता है। जैसे- सुनिय तानु ! गुनग्राम जासु नाम अघखगवधिक। यहाँ श्रीराम के 'नाम' पर 'बधिक होने का आरोप किया गया, परंतु ऐसा क्यों किया गया? इसलिये कि पहले 'अघ' पर 'खग' होने का आरोप कर चुके हैं, अर्थात् राम के 'नाम' के 'बधिक होने की सिद्धि के लिये पहले ही 'अघ' को 'खग' कह डाला है, नहीं तो राम के 'नाम' पर 'वधिक' का आरोप नहीं हो सकता। इसी प्रकार और जानो। यथा--