परिकर ७५ ४-लता नवल तनु अंग, जाति जरी जीवन बिना। कहा सिख्यो यह ढंग, तरुन अरुन निरदै निरखु ॥ इस सोरठा में दोपहर के प्रचंड तापयुक्त सूर्य के तेज से किसी नाजुक लता के सूख जाने का वर्णन है, परन्तु गौर करने से किसी विरहिणी नायिका की दशा का भी भान होता है। ५-जीवन के दानि हो सुजान हो सरस अति, जगत के जीवन को आनंद उमाहे हो। सुजस को पात्रो पर स्वारथ को धाओ, धरा तपनि मिटाइवे की मति अवगाहे हो। 'गोकुल' कहत इन्हें आस रावरे की है, जू प्यास इनकी न मेटि देत कहो काहे हो। गरजि धुमरि घनश्याम क्यों बरावत हो, कछु चातकीन हूँ को अपराध चाहे हो। इसमें कवि की इच्छा बादल और चातकियों के वर्णन की है, परन्तु तनिक ही गौर करने से इसमें कृष्ण और गोपियों के व्यवहार का भान मिलता है। ( इसी प्रकार और भी समझ लेना चाहिये ) सूचना-(श्लेप और समासोक्ति का भेद ) १-श्लेप में सभी अर्थ प्रस्तुत समझे जाते हैं। २-समासोक्ति में प्रस्तुत में अप्रस्तुत का भान-सा होता है। १६-परिकर * दो०-अभिप्राय जहँ क्रिया को सुविशेषन में होय । अलंकार परिकर तहाँ बरनत हैं कवि लोय ॥
- इस अलंकार को फारसी तथा उर्दू में 'सनअत इश्तकाक' कह
सकते हैं।