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पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/१४२

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मैं इस वृद्धावस्था में किस प्रकार सहूँ ? बेटी सुन ले, मान ले, अब हठ न कर।

यह सुन सती मुक्ताबाई ने अपनी माता से कहा:-

कर्म वचन मन पति सेवकाई ।
तियहिं न इहि सम आन उपाई ॥
अस जिय जानि कहि पति सेवा।
तिहि पर सानुकूल मुनि देवा ॥१॥

माँ ! तुम्हारी वृद्धावस्था हो चुकी है। इस जगत से तुम दुःख के कारण शीघ्र ही मुक्त हो जाओगी । परंतु मेरी अवस्था अभी तरुण है और यदि मैं तुम्हारे कहने से अपना सती होने का संकल्प कदाचित त्याग भी दूँ तो एक ही वर्ष पश्चात् तुम भी स्वर्गधाम को सिधार जाओगी। तब मैं निराधार और निराश्रित हो अपने वैधव्य को पल्लू में बाँध कर कहाँ जाऊँगी, किसके साथ रहूँगी ? मुझे इस जगत में कहीं जाने का ठौर ही नहीं दिखाई देता । इस समय तो प्राणपति के साथ जाकर अपने जन्म को सफल कर लूँगी; और पश्चात् में मरने से मेरे कारण कुत्ता तक भी रोनेवाला नहीं है। माँ ! इस जगत् के माया जाल में व्यर्थ न पड़ तुम्हें अधिक दु.ख न करना चाहिए। दु:ख सुख प्रारब्ध के अनुसार सभी भोगते हैं। एक का दुःख दूसरे का दुःख सुनने अथवा देखने से दूर होता है। देखो माँ ! राजा सुहोत्र कैसे थे कि जिनके राज्य में इंद्र ने सुवर्ण की वर्षा की थी। सारी नदियो में जीव जंतु सब सुवर्ण के थे कि जिनको उसने यज्ञ में ब्राह्मणों को दक्षिणा में दिया। वह राजा दशरथ से भी अधिक