है और दोनों परस्पर हितैषी माने जाते हैं; तथापि कहीं कहीं तो इनमें भी वैमनस्य देखा गया है कि एक दूसरे के प्राणनाशक शत्रु होते हैं। परंतु जो दंपति सर्वदा परछाईं के समान रहते हैं
और अलग होने पर, विफल और मिलने पर अत्यंत प्रसन्न होते हैं, क्या उनमें से भी अंत समय में कोई एक दूसरे का साथ देता है ? औरों की तो कथा ही क्या है, परंतु शरीर की नाड़ी भी मनुष्य के देह त्यागने पर उसको तुरंत त्याग देती है। कहा भी हैः--
इक दिन ऐसा होयगा, कोउ काहू का नाहिं ।
घर की नारी को कहे, तन की नारी जाहिं ।। (कबीर)
इसके उत्तर में यही कहा जायगा कि जो आया है वह जायगा, कौन किसके साथ जाता है और गया है ? परंतु मनुष्य अकेला कभी नहीं जाता । उसके साथ उसकी प्राणप्यारी कमलमुखी की जगह उसके सत्कर्म ही उसके साथ रहते हैं। और जब यह सत्य है कि कर्म बंधन नहीं टूटते तो फिर क्यों माया की कोठड़ी में बैठकर मनुष्य छल, कपट, मिथ्या और पाप के कार्य करके अपना भविष्य नष्ट किये डालते हैं ? क्या परम पूज्य प्रह्लाद, सर्वगुणसंपन्न राजा हरिश्चंद्र, परम कृपालु और सच्ची भक्त मीराबाई आदि के नामस्मरण से पुलकित शरीर और प्रेमाश्रु हो देह रोमांच नहीं होता। ये सब इसी भारतभूमि की गोद में हो गए हैं। श्रीमहात्मा तुकाराम, रामदयाल, श्रीगोस्वामी तुलसीदास आदि बड़े बड़े लोग नामरमरण से मोक्ष को प्राप्त हो गए हैं। उनका नाम आज दिन भी समस्त भारत में गूँज रहा है। उन्हीं के सदृश अहिल्याबाई
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