निज पति मस्तक गोद राखि यों हिये लगायो ।
लह्यो रंक जनु पारस अथवा फणि मणि पायो।।११।।
वह चन्दन की चिता, अग्नि संयुक्त भई जब ।
करुणा को प्रत्यक्ष मेघ बनि धूम उठो तब ।।
मनहुँ नींद सो जागि, फुँकारैं विषधर कारे ।
घोर सिंधु सो उठैं, बलाहक मनौ धुँधारे ॥१२॥
बहुरि शेष की जीभ सरिस ज्वाला लहरानी ।
करत चिता को भस्म, अग्नि चहुँ दिशा घहराने ।।
ढोल वाँसुरी झाँझ, और घटा घहराने ।
चहुँ ओर घन घोर, शोर यों जात न जाने ॥१३॥
एक दिशा सो घोर करुणा धुनि उठिकै आई ।
होत चिता सो शब्द पन्यो यह सबहिं सुनाई ।।
अरे सुनो वह शब्द, सवै अब ध्यान लगाई ।
रोवत हैं बिलखाय अहिल्या सुता गवाँई ।।१४।।
रोवति रोवति परी, मूर्छि महि पै महरानी ।
ह्वै गई संज्ञीहीन, मृत कवत प्रगद लखानी ।।
अति ही हाहाकार, पन्यो सब शोर मचायो ।
जगदीश्वर की कृपा, चेत् रानी को आयो ।।१५।।
राधाकृष्ण जायसवाल ।
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मुद्रक-गणपति कृष्ण गुजर लक्ष्मीनारायण प्रेस, काशी । १९०-२१