आज उदय होते हुए सूर्य के समान धीरे धीरे गंभीर मूर्ति पेशवा सरकार के अधीन रह, ठौर ठौर पर एकत्रित होकर संगठित हो रही थी । इन्हीं वीरगणों का एक समुदाय अणकाई के दुर्ग पर जो भोजराज के गाँव से थोड़े ही अंतर पर था निवास करता था ।
इस समय मल्हारराव की अवस्था १५ वर्ष की हो चुकी थी और इन्होंने महाराष्ट्रीय वीरो को, जो बहुधा इधर - ही से आया जाया करते थे, कई बेर देखा था । जब जब ये इन वीरगणों के सिपाहियाना भेष में ऊँचे ऊँचे घोड़ों पर चढ़े हुए और अपने अपने अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित देखते थे तब तब इनके हृदय में यही भाव उत्पन्न हुआ करता था कि यदि मैं भी इन्हीं लोगों के समान अस्त्र शस्त्र धारण कर फौज के सिपाहियों का सरदार बन घोड़े पर बैठूँ तो उत्तम होगा । अपने स्फटिकरूपी स्वच्छ अंतःकरण से परमात्मा के नाम को स्मरण कर ये सदा यही प्रार्थना किया करते थे कि मैं भी एक दिन इसी प्रकार सजधज कर सरदारी वस्त्र धारण कर माता के दर्शन करूँ। 'सर्वव्यापी, भक्त वत्सल दीनों के ऊपर दया करनेवाले, स्वच्छ मन से पुकार करनेवाले की पुकार अवश्य सुनते हैं । जो आर्तों की सदा रक्षा किया करते हैं, जो त्रैलोक्य की सृष्टि का नियमपूर्वक पालन करते हैं और जो शिष्टों का पालन और दुष्टों का दमन करने को सदा उद्यत रहते हैं, वे ही अपनी विश्वपालिनी शक्ति से सब की इच्छा पूर्ण करते है ।
जगत्प्रख्यात बाजीराव पेशवा के अधीन उस समय