पड़ा। हमारे वीर योद्धा मल्हारराव तो सदा यही चाहते थे कि जहां कोई न जाय वहाँ हम स्वयं जाकर अपनी शूरता और बहादुरी का परिचय देवें।
मालवा प्रांत में आते ही मल्हारराव ने गिरधर बहादुर से निशंक हो स्पष्ट कहला भेजा कि यदि इच्छा हो तो रणक्षेत्र में आकर लड़ाई लड़ो वरना इस प्रांत का समस्त अधिकार पेशवा सरकार को दे दो जिनकी ओर से मैं यहाँ स्वयं आकर उपस्थित हुआ हूँ, परंतु "सीधा अँगुरी घी जम्यो क्यों हू निकसत नाहिं" गिरधर बहादुर भी मामूली मनुष्य नहीं था, तुरंत लडाई लड़ने को उतारू हो गया । बस फिर क्या था, खूब ही घमासान युद्ध हुआ और लोहू की नदियाँ बहीं और अंत को गिरधर बहादुर को हार माननी पड़ी। गिरधर बहादुर मल्हारराव की शूरता, हिम्मत और रणचातुरी देख विस्मित हो गया और उनकी स्वयं बारंबार सराहना करने लगा । जब मल्हारराव ने अपना पूर्ण आधिपत्य मालवा प्रांत में जमा लिया तब इन्होंने अपना पैर आगरे और दिल्ली की तरफ बढ़ा मुगलों का पराभव करना चाहा । जब दिल्लीपति को मल्हारराव और राणोजी शिंदिया का फौज सहित आगमन मालूम हुआ, तब मुगल बादशाह ने तुरंत इनको रोकने के लिये बड़ी सेना भूपाल पर भेज कर, निजाम से अपनी फौज भी महायता को भेजने के लिये कहलाया परंतु वीरवर पेशवा सरकार की फौज का जिसमें राणोजी शिंदिया, मल्हारराव होलकर सरीखे प्रसिद्ध वीर सम्मिलित थे,किसका हियाव होता था कि सामना युद्ध में कर उस पर विजय प्राप्त कर सके ? केवल