सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
(५३)


जिस समय अहिल्याबाई ने अपने राज्यशासन का कार्य- भार अपने हाथ में लिया, उस समय संपूर्ण देश चोर, ठंग, और लुटेरों के दुःख से त्रस्त था । कहीं भी सुख और शांति नहीं थी और प्रजा की संपत्ति और जीवन (जान) जोखम में थी । उस समय बाई ने एक आम दरबार करके यह प्रस्ताव किया कि जो कोई मनुष्य इस सारे राज्य की प्रजा के लुटेरों के कष्ट को नाश कर देगा, उसको मैं अपनी पुत्री ब्याह दूँगी । एक गृहस्थ यशवंतराव नामक ने इस वृहत् कार्य की जिम्मेदारी अपने सिर पर ली, और वह इस कार्य में फलीभूत हुआ और जब तक बाई जीवित रहीं, उनके विशाल राज्य में कभी भी कोई डकैती नहीं हुई । बाई ने अपने कथनानुसार अपनी पुत्री मुक्ताबाई का विवाह, जिस साहसी ने इंदौर के राज्य में से चोर, लुटेरों और डाकुओं की जड़ से खोद कर फेंक दिया था, उस यशवंतराव के साथ कर दिया ।

अहिल्याबाई ने अपनी लड़की के विवाह में सब सरदारों, दलपतियों और प्रजा को भोजन और पोशाक दिए थे, और समस्त राज्य के रहनेवाले ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र, और धन दिया था । बाई ने अपनी पुत्री को बहुत सा दहेज तथा सराना परगना भी दिया था ।

विदा होने के समय अहिल्याबाई आनंद से भरे हुए प्रेमाश्रुओं के वेग को न रोक सकीं और गदगद कंठ से कहने लगीं, बेटा यशवंतराव, अब तुमको गृहस्थाश्रम के नए संसार का सामना करना पड़ेगा, देखो, बड़ी सावधानी से