सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आँधी.djvu/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९३
विजया

नहीं नहीं रो मत- मैं ले आऊँगी पर कैसे ले आऊँ ? हा उस छलिया ने मेरा सवस्व लूटा और कहीं का न रखा। नहीं नहीं मुझे एक लाल है | कंगाल का एक अमूल्य लाल ! मुझे बहुत है। चलँगी जैसे होगा एक कुरता खरीदूंगी। उधार लूंगी। दशमी-विजयादशमी के दिन मेरा लाल चिथड़ पहन कर नहीं रह सकता।

पास ही जाते हुए मां और बेटे की बात कमल के कान में पड़ी। वह उठ कर उसके पास गया । उसने कहा---सुदरी।

बाबूजी !-याश्चर्य से सुंदरी ने कहा । बालक ने भी स्वर मिला कर कहा–बाबूजी!

कमल ने रुपया देते हुए कहा-सुदरी यह एक ही रुपया बचा है इसको ले जाओ । न चे को कुरता खरीन लेना। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है क्षमा करोगी?

बचे ने यि फैला रिया-मुरी ने उसका नहा हाथ अपने हाथ म समेट कर कहा नहीं मेर बचे के कुरते स अधिक आवश्यकता श्रापके पेट के लिए है । मैं सब हाल जानती हूँ।

मेरा आज श्रत होगा अब मुझे आवश्यकता नहीं-ऐसे पापी का जीवन रख कर क्या होगा । सुदरी । मैंने तुम्हारे ऊपर बड़ा अत्याचार किया है क्षमा करोगी ! श्राह ! इस अतिम रुपये को लेकर मुझे क्षमा कर दो। यह एक ही सार्थक हो जाय !

आज तुम अपने पाप का मूय दिया चाहते हो-वह भी एक रुपया ?

और एक फूटी कौड़ी भी नहीं है सुदरी ! लाखों उड़ा दिया है- मैं लोभी नहीं हूँ।

विधवा के सर्वस्व का इतना मूल्य नहीं हो सकता । मुझे धिक्कार दो मुझ पर थूको ।