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पृष्ठ:आँधी.djvu/१०४

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अमिट स्मृति

य। उन दिनों ऐसी यात्राओं में ऐसे मनुष्यों का रखना आवश्यक समझा जाता था।

सूर्य बहुत ऊपर आ चुके थे मुझे प्यास लगी थी। तुम तो जानते ही हो मैं दोनो वेला बूरी छानता हूँ। आमो की छाया में एक छोटा सा कुआ दिखाई पड़ा जिसके ऊपर मुरेरेदार पक्की छत थी और नीचे चारों ओर दालानें थीं। मैंने इक्का रोक देने को कहा। पूरन वाले दालान में एक बनिये की दूकान थी जिस पर गुड़ चना नमक सत्तू आदि बिकते थे। मेरे झोले में सब आवश्यक सामान थे। सीढ़ियों से चढ़ कर हम लोग ऊपर पहुँचे । सराय यहा से दो कोस और गाँव कोस भर पर था। इस रमणीय स्थान को देख कर विश्राम करने की इच्छा होती थी। अनेक पक्षियों की मधुर बोलियों से मिल कर पवन जैसे सुरीला हो उठा। ठंदई बनने लगी। पास ही एक नींबू का वृक्ष खूब फूला हुआ था। रघुनाथ ने बनिए से हाड़ी लेकर कुछ फूलों को भिगो दिया । ठंढई तैयार होते होते उसकी महक से मन मस्त हो गया । चाँदी के गिलास झोली से बाहर निकाले गये पर रघनाथ ने कहा- सरकार इसकी बहार तो पुरव में है । बनिये को पुकारा । वह तो था नहीं एक धीमा स्वर सुनाई पड़ा-क्या चाहिए?

पुरवे दे जाओ!

थोड़ी ही देर में एक चौदह वर्ष की लड़की सीढ़ियों से ऊपर आती हुई नजर पड़ी । सचमुच वह साल की छींट पहने एक देहाती लड़की थी कल उसकी भाभी ने उसके साथ खूप गुलाल खेला था वह जगी भी मालूम पड़ती थी-मदिरा मदिर के द्वार सी खुली हुई आँखों में गुलाल की गरद उड़ रही थी। पलकों के छज्जे और बगनियों की चिकों पर भी गुलाल की बहार थी। सरके हुए घूघट से जितनी अलकें दिखलाई पड़ती वे सब रँगी थीं। भीतर से भी उस सरजा को कोई रंगीन बनाने लगा था। न जाने क्यों इस छोटी अवस्था में ही वह चेतना से