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नीरा

कुछ न कुछ इस देना ही परता है। और भी मुझ एक रोग है । दो पैसों बिना व नहीं छूटता - पढ़ने के लिए अखबार चाहिए पुस्तकालयों में चिथड़े पहन कर बठने न पाऊँगा इसलिए नहीं जाता। दूसरे दिन का बासी समाचार पत्र दो पैसों में ले लेता हूँ।

अमरनाथ भी पास भा गया था। उसने यह काराष्ट देख कर हँसते हुए कहा--देवनिवास ! मैं मना करता था न ! तुम अपनी धुन मे कुछ सुनते भी हो । चले तो फिर चले और रुके तो अड़ियल टक भी झक मारे ! क्या उसे कुछ चोट आ गई है ? क्यो बूढे ! लो यह अठन्नी है। जाओ अपनी राह तनिक देख कर चला करो।

बूढा मसखरा भी था। अठन्नी लेते हुए उसने कहा-देख कर चलता तो यह अठन्नी कैसे मिलती। तो भी बाबूजी श्राप लोगों की जेब में अखबार होगा। मैंने देखा है वाइसिकिल पर चढ़े हुए बाबुत्रों के पाकेट में निकला हुआ कागज का मुठ्ठा अखबार ही रहता होगा।

चलो बाया झोपड़ी मे सर्दी लगती है। वह छोटी सी बालिका अपने बाबा को जैसे इस तरह बाते करते हुए देखना नहीं चाहती थी। यह संकोच में डूबी जा रही थी। देवनिवास चुप था । बुड्ढे को जैसे तमाचा लगा। व अपने दयनीय और धुणित मिक्षा-व्यवसाय को बहुधा नीरा से छिपा कर बना कर कहता । उसे अखबार सुनाता। और भी न जाने क्या-क्या ऊँची नीची बातें बका करता नीरा जैसे सब समझती थी। यह कभी बूढे से प्रश्न नहीं करती थी। जो कुछ वह कहता चुपचाप सुन लिया करती थी। कभी कभी बुइटा झुंझला का चुप हो जाता तब भी वह चुप रहती । बूढे को आज ही नीरा ने झोंपड़ी में चलने के लिये कह कर पहले पहल मीठी झिडकी दी। उसने सोचा कि अठन्नी पाने पर भी अखबार मागना नीरा न सह सकी।

अच्छा तो बाबूजी भगवान् यदि कोई हो तो श्रापका भला करें-