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पृष्ठ:आँधी.djvu/१११

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आँँधी

नीरा घबरा उठी थी। उसने किसी तरह दो घट जल गले से उतार कर इन लोगों की ओर देखा । उसकी आखें कह रही थी कि जाओ मेरी दरिद्रता का स्वाद लेनेवाले धनी विचारको ! और सुख तो तुम्हें मिलते ही हैं एक न सही।

अपने पिता को बातें करते देख कर वह घबरा उठती थी। वह डरती थी कि बुडढा न जाने क्या क्या कह बैठेगा । देवनिवास चुपचाप उसका मुंह देखने लगा।

नीरा बालिका न थी। स्त्रीत्व के सब यजन थे फिर भी जैसे दरिद्रता के भीषण हाथों ने उसे दबा दिया था वह सीधी ऊपर नहीं उठने पाई।

क्या तुमको ईश्वर में विश्वास नहीं है ?अमरनाथ ने गम्भीरता से पूछा।

आलोचक में एक लेख मैंने पढ़ा था । वह इसी प्रकार के उलाहना से भरा था कि वर्तमान जनता में ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव बढ़ता जा रहा है और इसीलिए वह दुखी है। यह पढ़ कर मुझे तो इसी आ गई। बुड्ढ़े ने अविचल भाव से कहा।

हँसी आ गई ! कैसे दुख की बात है।–अमरनाथ ने कहा ।

दुख की बात सोच कर ही तो हँसी आ गई। हम मूर्ख मनुष्यों ने प्राण की–शरण की–आशा से ईश्वर पर पूर्वकाल में विश्वास किया था, परस्पर के विश्वास और सदभाव को ठुकरा कर । मनुष्य मनुष्य का विश्वास नहीं कर सका इसीलिए तो । एक सुखी दूसरे दुखी की ओर घृणा से देखता था । दुखी ने ईश्वर का अवलम्बन लिया तो भी भगवान् ने संसार के दुखों की सृष्टि बंद कर दी क्या ? मनुष्य के बूते का न रहा तो क्या वह भी कहते-कहते बूढ़े की आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगी किन्तु वे अग्निकण गलने लगे और उसके कपोलों के गढ़े में वह द्रव इकट्ठा होने लगा।