पृष्ठ:आँधी.djvu/१२

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आँँधी


जाओ जो स्वप्न तुम देख रही हो उसमें केवल हम और तुम हैं । संसार का आभास भी नहीं । मैं संसार में एक दिन और जीना सुख लेते हुए जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का समन्वय करने का प्रयत्न कर रहा हूँ । न मालूम कब से मनुष्य इस भयानक सुख का अनुभव कर रहा है । मैं उन मनुष्यों में अपवाद नहीं हूँ । क्योंकि यह सुख भी तुम्हारे स्वतंत्र मुख की संतति है । वह आरम्भ है यह परिणाम है । फिर भी घर बसाना पड़ेगा । फिर वही समस्याएँ सामने आवेंगी । तब तुम्हारा यह स्वप्न भंग हो जायेगा । पृथ्वी ठोस और कंकरीली रह जायगी । फूल हवा में बिखर जाएगे । आकाश का विराट् मुख समस्त आलोक को पी जायेगा । अंधकार केवल अधंकार में झुँझलाहट भरा पश्चात्ताप जीवन को अपने डंकों से क्षत विक्षत कर देगा । इसलिए लैला ! भूल जाओ । तुम चारयारी बेचती हो । उस से सुना है चोर पकड़े जाते हैं । किंतु अपने मन का चोर पकड़ना कहीं अच्छा है । तुम्हारे भीतर जो तुमको चुरा रहा है उसे निकाल बाहर करो । मैंने तुमसे कहा था कि बहुत से ऐसे पुराने सिक्के खरीदूँगा तुम अब की बार पश्चिम जाओ तो खोजकर ले आना । मैं उन्हें अच्छे दामों पर ले लूँगा । किंतु तुमको खरीदना अपने को बेचना है । इसलिए मुझ से प्रेम करने की भूल तुम न करो । हाँ अब कभी इस तरह पत्र न भेजना क्योंकि वह सब व्यर्थ है । रामेश्वर मैं एक सास में पत्र पढ़ गया तब तक लैला मेरा मुँह देख रही थी । मेरा पढना कुछ ऐसा ही हुआ जैसे लोग सपने में बर्राते हैं । मैंने उसकी ओर देखते हुए वह कागज उस लौटा दिया । उसने पूछा - इसका मतलब ? मतलब ! वह फिर किसी समय बताऊँगा । अब मुझे जलपान करना है । मैं जाता हूँ । - कहकर मैं मुड़ा ही था कि उसने पूछा - आपका