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पृष्ठ:आँधी.djvu/४०

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आँँधी
३३
 

बाहर के कोलाहल ने मुझे जगा ही दिया । देखता हूँ तो ईरानियों का एक झुंड बाहर खड़ा है। मैंने पूछा-क्या है ? गुल ने कहा-यहाँ का पीर कहा है ? पीर- मैंने आश्चर्य से पूछा। हा वही जो पीला पीला कपड़ा पहनता था।

मैं समझ गया वे लोग प्रज्ञासारथि को खोजते थे। मैंने कहा- वह तो यहा नहीं हैं अपने घर गये । काम क्या है ?

एक लड़की को हवा लगी है यहीं का कोई आसेब है । पीर को दिखलाना चाहती हूँ।-एक अधेड़ ली ने बड़ी याकुलता से कहा।

मैंने पूछा-भाई ! मैं तो यह सब कुछ नहीं जानता । वह लड़की कहाँ है ?

पड़ाव पर बाबूजी ! आप चलकर देख लीजिए। आगे वह कुछ न बोल सकी । कि तु गुल ने कहा-बाबू ! तुम जानते हो वही लैला ।

आगे मैं न सुन सका । अपनी ही अतध्वनि से मैं व्याकुल हो गया । यी तो होता है किसी के उजड़ने से ही दूसरा बसता है । यदि यही विधि विधान है तो बसने का नाम उजड़ना ही है । यदि रामेश्वर मालती और अपने बाल बचों की चिता छोड़ कर लैला को ही देखता तभी कितु वैसा हो कैसे सकता है ! मैंने कल्पना की आखों से देखा लैला का विवर्ण सुदर मुख-निराशा की झुलस से दयनीय मुख !

उन ईरानियों से फिर बात न करके मैं भीतर चला गया और तकिये में अपना मुँह छिपा लिया। पीछे सुना कलुना डाट बताता हुआ कह रहा है-जाओ जाओ यहा बाबाजी नहीं रहते ! x