पृष्ठ:आँधी.djvu/८०

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बेड़ी

बाबूजी एक पैसा! मैं सुनकर चौंक पड़ा कितनी कारुणिक आवाज थी । देखा तो एक ६१ बरस का लड़का अंंधे की लाठी पकड़े खड़ा था । मैंने कहा - सूरदास यह तुमको कहाँ से मिल गया ?

अंंधे को अंंधा न कह कर सूरदास के नाम से पुकारने की चाल मुझे भली लगी। इस सम्बोधन म उस दीन के प्रभाव की ओर सहानु भूति और सम्मान की भावना थी व्यंग न था।

उसने कहा-पाबूजी यह मेरा लड़का है--मुझ अधे की लकड़ी है । इसक रहने से पेट भर खाने को माँग सकता हूँ और दबने कुचलने से भी बच जाता हूँ।

मैंने उसे इकनी दी बालक ने उसाह से कहा--अहा इकनी । बुड्ढे ने कहा-दाता जुग-जुग जियो ।

मैं आगे बढा और सोचता जाता था इतने कष्ट से जो जीवन बिता रहा है उसके विचार म भी जीवन ही सबसे अमूल्य वस्तु है हे भगवन् ।

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दीनानाथ करी क्यों देरी-दशाश्वमेघ की ओर जाते हुए मेरे कानों में एक प्रौढ स्वर सुनाई पड़ा। उसमें सच्ची विनय थी-वही जो तुलसीदास की विनय पत्रिका म श्रोत प्रोत है । वही श्राकुलता सान्निध्य की पुकार प्रबल प्रहार से यथित की कराह ! मोटर की दम्भ भरी भीषण भौ भों में विलीन हो कर भी वायुमण्डल में तिरने लगी। मैं