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पृष्ठ:आँधी.djvu/८८

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व्रत भंग


आश्चर्य से देखा नंदन ने और हतबुद्धि होकर सुना कलश ने। दोनों उपवन के बाहर चले गये।

वह उपवन सब से परित्यक्त और उपेक्षणीय बन गया । भीतर बैठी हुई राधा ने यह सब देखा।

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नन्दन ने पिता का अनुकरण किया। वह धीरे धीरे राधा को भूल चला पर तु नये याह का नाम लेते ही चौंक पड़ता। उस के मन मे धन की ओर से वितृष्णा जगी। ऐश्वर्य का यानिक शासन जीवन को नीरस बनाने लगा। उसके मन की अतृप्ति विद्रोह करन के लिए सुविधा खोजने लगी।

कलश ने उसके मनोविनोद के लिए नया उपवन बनवाया । नदन अपनी स्मृतियों का लीला निकेतन छोड़ कर वहीं रहने लगा।

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राधा के श्राभूषण विकते थ और उस सेठ के द्वार की अतिथि सेवा वैसी ही होती रहती । मुक्त द्वार का अपरिमित व्यय और आभूषणों के विक्रय की आयकर तक य युद्ध चले ? अब राधा के पास बच गया था वही मणि निर्मित दीपाधार जिसे महादेवी ने उसकी क्रीड़ा के लिए बनवाया था।

थोड़ा सा अन्न अतिथियों के लिए बचा था। राधा दो दिन से उप वास कर रही थी। दासी ने कहा-स्वामिनी ! यह कैसे हो सकता है कि आपके सेवक बिना आपके भोजन किये अन्न ग्रहण करें।

राधा ने कहा-तो आज यह मणि दीप बिकेगा । दासी उसे ले श्राई । वह यन्त्र से बनी हुई रन जटित नर्तकी नाच उठी। उसके नूपुर की झकार उस दरिद्र भवन में गूंजने लगी। राधा हँसी। उसने कहा-मनुष्य जीवन में इतनी नियमानुकूलता यदि होती?