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पृष्ठ:आँधी.djvu/९

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आँँधी


अधिक सरसता थी । मेरा ह्रदय हलका हलका सा हो रहा था । पवन में मादक सुगंध और शीतलता थी। ताल पर नाचती हुई लाल लाल किरण वृक्षों के अतराल से बड़ी सुहावनी लगती थीं । मैं परजाते के सौरभ में अपने सिर को धीरे-धीरे हिलाता हुआ कुछ गुनगुनाता चला जा रहा था। सहसा मुचकुद के नीचे मुझे धुआँ और कुछ मनुष्यों की चहल पहल का अनुमान हुआ । मैं कुतूहल से उसी ओर बढ़ने लगा।

वहा कभी एक सराय भी थी अब उसका रस बच रहा था । दो एक कोठरिया थी किंतु पुरानी प्रथा के अनुसार अब भी वहीं पर पथिक ठहरते।

मैंने देखा कि मुचकुन्द के आस पास दूर तक एक विचित्र जमावाड़ा। अदभुत शिविरों की पाति में वहा पर कानन चरों बिना घरवालों की बस्ती बसी हुई है।

सष्टि को आरम्भ हुए कितना समय बीत गया किन्तु इन अभागों को कोई पहाड़ की तलहटी या नदी की घाटी बसाने के लिए प्रस्तुत न हुई और न इन्हें कहीं घर बनाने की सुविधा ही मिली। वे आज भी अपने चलते फिरते घरों को जानवरों पर लादे हुए घूमते ही रहते हैं ! मैं सोचने लगा - ये सभ्य मानव समाज के विद्रोही हैं तो भी इनका एक समाज है । सभ्य संसार के नियमों को कभी न मान कर भी इन लोगों ने अपने लिए नियम बनाये हैं । किसी भी तरह जिनके पास कुछ है उनसे ले लेना और स्वतंत्र होकर रहना। इनके साथ सदैव आज के संसार के लिए विचित्रतापूर्ण संग्रहालय रहता है । ये अच्छे घुड़सवार और भयानक व्यापारी हैं। अच्छा ये लोग कठोर परिश्रमी और संसार यात्रा के उपयुक्त प्राणी हैं। फिर इन लोगों ने कही बसना घर बनाना क्यों नहीं पसंद किया ? - मैं मन-ही-मन सोचता हुआ धीरे-धीरे उनके पास होने लगा। कुतूहल ही तो था ।आज तक इन लोगों के सम्बध में कितनी ही बातें सुनता आया था । जब निर्जन चन्दा का ताल मेरे