व्रत भंग घिरी थी जल बरसता था। कलश अपनी ऊँची अटारी पर बैठा मणि निर्मित दीपाधार का नत्य देख रहा था।
नंदन भी उसी नाव पर था जिस पर चार दुर्वल स्त्रियाँ तीन शीत से ठिठुरे हुए बच्चे और पाच जीर्ण पंजर वाले वृद्ध थे। उस समय नाव द्वार पर ना लगी। सेठ का प्रासाद गगा तट की एक अची चट्टान पर था। वह एक छोटा सा दुग था। जल अभी द्वार तक ही पहुच सका था । प्रहरियों ने नाव को देखते ही रोका-पीड़ितों को इसम स्थान नहीं।
नन्दन ने पूछा-क्यों?
महाश्रेष्ठि कलश की आज्ञा ।
नादन ने एक बार क्रोध से उस प्रासाद की ओर देखा और माझी को नाव लौटाने की श्राशा दी। माझी ने पूछा--कहा ले चल १ नन्दन कुछ न बोला । नाय उस बाढ मं चक्कर खाने लगी। सहसा दूर उस जल म न वृक्षों की चोटियों और पेड़ों के बीच म एक गृह का ऊपरी अंश दिखाई पड़ा । नदन ने सकेत किया । माझी उसी ओर नाव खेने लगा।
गृह के नीचे के अंश में जल भर गया था। थोड़ा सा अन और इंधन ऊपर क भाग में बचा था। राधा उस जल में घिरी हुई अचल थी। छत के मुडेरे पर बैठी वह जलमयी प्रकृति में डूबती हुई सूर्य की प्रतिम किरणों को ध्यान से देख रही थी। दासी ने कहा-स्वामिनी | वह दीपाधार भी गया अब तो हम लोगों के लिए बहुत थोड़ा अन घर में बच रहा है।
देखती नहीं यह प्रलय-सी बाढ ! कितने मर मिटे होंगे। तुम तो