उस ग्रामीण भाषा में पुग़ली के हृदय की सरल कथा थी-मामिक
व्यथा थी । मैं तमय हो रहा था ।
जीवनसिंह न जाने क्यों चञ्चल हो उठे। उठ कर टहलने लगे । छत के नीचे गीत सुनाई पड़ रहा था।
खनकार भरी कपती हुई तान हृदय खुरचने लगी। मैंने कहा- जीवन उसे बुला लाओ मैं इस प्रेमयोगिनी का दर्शन तो कर लें।
सहसा सीढियों पर धमधमाहट सुनाई पड़ी वही पगली रोहिणी आकर जीवन के सामने खड़ी हो गई।
पीछे-पीछे सिपाही दौड़ता हुआ पाया। उसने कहा-इट पगली ।
जीवन और हम चुप थे | उसने एक बार घूम कर सिपाही की ओर देखा । सिपाही सहम गया । पगली रोहिणी फिर गा उठी।
दीठ | बिसारे विसरत नाही
कसे बसू जाय बनवा म
बरजोरी बसे हो-
सहसा सिपाही ने कर्कश स्वर से फिर डॉटा । वह भयभीत हो जैसे भगी या पीछे हटी मुझे स्मरण नहीं । परन्तु छत के नीचे गंगा के चंद्रिका रजित प्रवाह में एक छपाका हुआ। हतबुद्धि जीवन देखते रहे। मैं ऊपर अनत की उस दौड़ को देखने लगा। रोहिणी चन्द्रमा का पीछा कर रही थी और नीचे से छपाके से उठे हुए कितने ही बुद बुदों में प्रतिविम्बित रोहिणी की किरणें विलीन हो रही थीं।