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आकाश-दीप
 

उसी समय नायक ने कहा---"हम लोग द्वीप के पास पहुँच गये।"

वेला से नाव इकराई। चम्पा निर्भीकता से कूद पड़ी। माँझी भी उतरे। बुद्धगुप्त ने कहा---“जब इसका कोई नाम नहीं हैं तो हम लोग इसे चम्पाद्वीप कहेंगे।”

चम्पा हँस पड़ी।

पाँच बरस बाद---

शरद के धवल नक्षन्न नील गगन में झलमला रहे थे। चन्द्र के उज्ज्वल विजय पर अन्तरिक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीर्वाद के फूलो और खीलों को बिखेर दिया।

चम्पा के एक उच्च सौध पर बैठी हुई तरुणी चम्पा दीपक जला रही थी। बड़े यत्न से अभ्रक की मञ्जूषा में दीप धरकर उसने अपनी सुकुमार उँगुलियो से डोरी खींची। वह दीपाधार ऊपर चढ़ने लगा। भोली-भोली आँखें उसे ऊपर चढ़ते बड़े हर्ष से देख रही थीं। डोरी धीरे-धीरे खींची गई। चम्पा की कामना थी कि उसका आकाश-दीप नक्षत्रों से हिलमिल जाय; किंतु वैसा होना असंभव था। उसने आशाभरी आँखें फिरा लीं।

सामने जलराशि का रजत श्रृंगार था। वरुण बालिकाओं के लिये लहरों से हीरे और नीलम की क्रीडा शैलमालाये बना रही

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