पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/१५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
प्रणय-चिन्ह
 

साहस करके पथिक आगे बढ़ने लगा। दृष्टि काम नहीं देती थी, हाथ-पैर अवसन्न थे। फिर भी चलता गया। विरल छायावाले खजूर-कुञ्ज तक पहुँचते-पहुँचते वह गिर पड़ा। न जाने कब तक अचेत पड़ रहा।

एक पथिक पथ भूलकर वहाँ विश्राम कर रहा था। उसने जल के छींटे दिये। एकान्तवासी चैतन्य हुआ। देखा एक मनुष्य उसकी सेवा कर रहा है। नाम पूछने पर मालूम हुआ---'सेवक'।

'तुम कहाँ जाओगे?' उसने पूछा।

'संसार से घबराकर एकान्त में जा रहा हूँ।'

'और मैं एकान्त से घबरा कर संसार में जाना चाहता हूँ।'

'क्या एकान्त में कुछ सुख नहीं मिला?'

'सब सुख था---एक दुःख, पर वह बड़ा भयानक दुःख था। अपने सुख को मैं किसी से प्रकट नहीं कर सकता था, इससे बड़ा कष्ट था।'

'मैं उस दुःख का अनुभव करूँगा।'

'प्रार्थना करता हूँ उसमें न पड़ो।'

'तब क्या करूँ?'

'लोट चल; हम लोग बातें करते हुए जीवन बिता देंगे!'

'नहीं, तुम अपनी बातों में विष उगलोगे।'

'अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा।'

दोनों विश्राम करने लगे। शीतल पवन ने सुला दिया। गहरी

--- १४९ ---