पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/१८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
आकाश-दीप
 


छूल-छूलैया खेलते हुए आकाश को अपने कलरव से गुञ्जरित कर रहे थे।

शीरीं ने सहसा अपना अवगुण्ठन उलट दिया। प्रकृति प्रसन्न हो हँस पड़ी। गुलाबों के दल में शीरीं का मुख राजा के समान सुशोभित था। मकरन्द मुँह में भरे दो नील-भ्रमर उस गुलाब से उड़ने में असमर्थ थे, भौरो के पर निस्पन्द थे। कटीली झाड़ियों की कुछ परवाह न करते हुए बुलबुलों का उनमें घुसना और उड़ भागना शीरीं तन्मय होकर देख रही थी।

उसकी सखी जुलेखा के आने से उसकी एकान्त भावना भंग हो गई। अपना अवगुंठन उलटते हुए जुलेखा ने कहा---"शीरीं! वह तुम्हारे हाथों पर आकर बैठ जानेवाला बुलबुल, आजकल नहीं दिखलाई देता?"

आह खींचकर शीरीं ने कहा---"कड़े शीत में अपने दल के साथ मैदान की ओर निकल गया। वसन्त तो आ गया पर वह नहीं लौट आया।"

"सुना है कि ये सब हिन्दोस्तान में बहुत दूर तक चले जाते है। क्या यह सच है शीरीं?"

"हाँ प्यारी! उन्हें स्वाधीन विचरना अच्छा लगता है। इनकी जाति बड़ी स्वतन्त्रता-प्रिय हैं।"

"तूने अपनी घुँघराली अलको के पाश में उसे क्यों न बाँध लिया?"

--- १८० ---