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आकाश-दीप में
 

"यहाॅ तक तो मेरी आशा के अनुसार है हुआ, परन्तु उस अलाउद्दीन की हत्या क्यों की?"--- दॉत पीसकर शेख ने कहा।

"यह मेरा उससे प्रतिशोध था!"---अविचल भाव से देवपाल ने कहा।

"तुम जानते हो कि इस पहाड़ के शेख केवल स्वर्ग के ही अधपति नहीं, प्रत्युत हत्या के दूत भी हैं!"---क्रोध से शेख ने कहा।

"इसके जानने की मुझे उत्कण्ठा नहीं हैं शेख! प्राणी-धर्म, में मेरा अखण्ड विश्वास है। अपनी रक्षा करने के लिये, अपने प्रतिशोध के लिये, जो स्वाभाविक जीवन-तत्व के सिद्धान्त की अवहेलना करके चुप बैठता है, उसे मृतक, कायर, सजीवता-विहीन, हड्डी-मांस के टुकड़े के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं समझता। मनुष्य परिस्थितियों का अंध-भक्त है, इसलिये मुझे जो करना था वह मैंने किया; अब तुम अपना कर्त्तव्य कर सकते हो।"---देवपाल का स्वर दृढ़ था।

भयानक शेख अपनी पूर्ण उत्तेजना से चिल्ला उठा। उसने कही---"और, तू कौन हैं स्त्री? तेरा इतना साहस! मुझे ठगना!"

लज्जा अपना वाह्य आवरण फेंकती हुई बोली---"हाँ शेख, अब आवश्यकता नहीं कि मैं छिपाऊँ, मैं देवपाल की प्रणयिनी हूँ!"

"तो तू इन सबको ले जाने या बहकाने आई थी, क्यों?"

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