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आकाश-दीप
 

चन्द्रदेव ने बात बदलने के लिये कहा---"इस पर मैं फिर वाद-विवाद करूँगा। अभी तो वह देखो, झरना आ गया---हम लोग जिसे देखने के लिये आठ मील से आये हैं।"

"सत्य और झूठ का पुतला मनुष्य अपने ही सत्य की छाया नहीं छू सकता, क्योंकि वह सदैव अंधकार में रहता है। चन्द्रदेव, मेरा तो विश्वास है कि तुम अपने को भी नहीं समझ पाते।"---देवकुमार ने कहा।

चन्द्रदेव बैठ गया। वह एकटक उस गिरते हुए प्रपात को देख रहा था। मसूरी-पहाड़ का यह झरना बहुत प्रसिद्ध है। एक गहरे गड्ढे में गिरकर, यह नाला बनता हुआ, ठुकराये हुए जीवन के समान भागा जाता है।

चन्द्रदेव एक ताल्लुकेदार का युवक पुत्र था। अपने मित्र देवकुमार के साथ मसूरी के ग्रीष्म-निवास में सुख और स्वास्थ्य की खोज में आया था। इस पहाड़ पर कब बादल छा जायँगे, कब एक झोंका बरसता हुआ निकल जायगा, इसका कोई निश्चय नहीं। चंद्रदेव का नौकर पान-भोजन का सामान लेकर पहुँचा। दोनों मित्र एक अखरोट-वृक्ष के नीचे बैठकर खाने लगे। चन्द्रदेव थोड़ी मदिरा भी पीता था, स्वास्थ्य के लिये।

देवकुमार ने कहा---"यदि हम लोगों को बीच ही में भींगना न हो तो अब चल देना चाहिये।"

पीते हुए चन्द्रदेव ने कहा---"तुम बड़े डरपोक हो। तनिक

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