बंगाल को फतह करने की कोशिश नहीं की। एक ही बार में अनन्त धन प्राप्त किया जा सकता था, जो कि ब्राजील और पेरू की सोने की खानों के मुकाबिले होता। मुगलों की राजनीति खराब थी। उनकी सेना और भी अधिक खराब थी। जल-सेना उनके पास नहीं थी। राज्य-भर में विद्रोह होते रहते थे। नदियाँ और बन्दरगाह दोनों विदेशियों के लिए खुले थे। यह देश इतनी ही आसानी से फतह हो सकता था, जितनी आसानी से स्पेनवालों ने अमेरिका के नंगे बाशिन्दों को अपने आधीन कर लिया था। तीन जहाजों में डेढ़ या दो हजार सैनिक इस शहर को फतह करने के लिए यथेष्ठ थे।
जब अंग्रेज बंगाल में आये और उन्होंने यहाँ के व्यापार से लाभ उठाना चाहा, तो वहाँ के हिन्दुओं से मिलकर उन्होंने मुस्लिमराज्य को पतित करने की चेष्टा की। एक पंजाबी धनी व्यापारी अमीचन्द को इसमें मिलाया गया, और उसके द्वारा चुपके-चुपके बड़े-बड़े हिन्दू-राजाओं को वश में किया गया। अमीचन्द को बड़े-बड़े सब्ज़ बाग दिखाये गये। अमीचन्द के धन और अंग्रेजों के वादों ने मिलकर, नवाब के दरबार को बेईमान बना डाला।
इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी सैनिक-शक्ति बढ़ानी और किलेबन्दी शुरू कर दी। दीवानी के अधिकार वे प्रथम ही ले चुके थे। अलीवर्दीखाँ अंग्रेजों के इस संगठन को ध्यान से देख रहा था, पर वह कुछ कर न सका और उसका देहान्त हो गया।
भाग्यहीन युवक नवाब सिराजुद्दौला २४ वर्ष की आयु में अपने नाना की गद्दी पर सन् १७५६ में बैठा। उस समय मुगल-साम्राज्य की नींव हिल चुकी थी और अंग्रेजों के हौसले बढ़ रहे थे। उन्हें दिल्ली के बादशाह ने बंगाल में बिना चुंगी महसूल दिये व्यापार करने की आज्ञा दे दी थी। इस आज्ञा का खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग किया जाता था, और वे व्यापारिक आदेशपत्र किसी भी हिन्दुस्तानी व्यापारी को बेच दिये जाते थे; जिससे राज्य की बड़ी भारी हानि होती थी।
मरते वक्त अलीवर्दीखाँ ने सिराजुद्दौला को यह हिदायत दी थी-कि योरोपियन कौमों की ताकत पर नजर रखना। यदि खुद मेरी उम्र बढ़ा देता, तो मैं तुम्हें इस डर से बचा देता। अब मेरे बेटे! यह काम तुम्हें खुद करना होगा। तिलंगों के साथ उनकी लड़ाइयाँ और राजनीति पर नजर
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