चौदह
साम्राज्ञी आत्वानेत कारागार में सख्त पहरे में रहती थी। शासकों को उससे डरने का कोई कारण नहीं था, परन्तु मारोत की मृत्यु के बाद वह भी उनकी दृष्टि में षंड्यन्त्र में सम्मिलित प्रतीत हुई। शासन ने उसपर भी अभियोग चलाने का निश्चय किया। सम्राट के कत्ल के बाद उसका पुत्र माता के ही पास रहता था, परन्तु अभियोग चलाने के निश्चय के बाद उसे मातां से पृथक् कर बन्दी पिता के कमरे में रखने की आज्ञा दी गई। रानी ने अपने पुत्र को अपने से अलग रखने का विरोध किया। दो घंटे तक वह अधिकारियों से झगड़ती रही, परन्तु वे किसी भाँति नहीं माने। माता के ममत्व का उन निष्ठुर व्यक्तियों को तनिक भी ध्यान नहीं हुआ। माता ने पुत्र को अपनी छाती से लगाकर भाग्य के भरोसे छोड़ दिया। अधिकारी उसे वहाँ से ले गए।
कुछ दिनों के बाद आत्वानेत को भी दूसरे बन्दीगृह में भेजने की आज्ञा हुई। एलिजाबेथ के अनुरोध को भी अधिकारियों ने स्वीकार नहीं किया। अब आत्वानेत को विश्वास हो गया कि अब वह अपने इन प्रियजनों से सदैव के लिए बिछुड़ रही है। वह स्थान छोड़ने से प्रथम उसने अपनी पुत्री को बहुत देर तक हृदय से लगाए रखा, और फिर उसका हाथ एलिजाबेथ के हाथों में देकर कहा-"बेटी, अब यही तेरे पिता माता और भाई के स्थान पर हैं। इनकी आज्ञा मानना, मेरे ही समान इनसे स्नेह रखना।"
उसने एलिजाबेथ को गले से लगाकर कहा-“मेरे इन भाग्यहीन बच्चों की अब तुम्ही माता हो। जिस प्रकार तुमने अब तक हमारा साथ नहीं छोड़ा, उसी प्रकार इन पर अपना स्नेह बनाए रखना। तुम्हारे सिवा अब संसार में इनका कौन है।
पुत्र को देखने के लिए वह तरसती रह गई। अधिकारी उसे अन्यत्रं बन्दीगृह में ले गए।
इस बन्दीगृह में आत्वानेत बहुत कष्ट में एकाकी जीवन व्यतीत करने
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