इमली के वृक्षों की घनी छाया से, नारंगियों की सुगन्ध से, अंजीरों के मनोहारी रंगों से और पुष्प रेणुओं से सर्वत्र महकती हुई मधुर सुगन्ध से इस प्रकृत सुन्दर भूमि के वैभव में चार चाँद लग गए थे।
दिल्ली इस्लाम की परम प्रतापी राजधानी अवश्य रही, परन्तु इस्लामी नजाकत, जो ऐयाशी और मद से उत्पन्न हुई थी उसका जहूर तो लखनऊ ही में नजर आया। आज भी लखनऊ अपनी फसाहत और नजाकत के लिये मशहूर है। लखनऊ के नवाबों के एक-से-एक बढ़कर मजेदार और आश्चर्यजनक कारनामे सुनने को मिलते हैं। वह बाँकपन, वह अल्हड़पन, वह रईसी बेवकूफी दुनिया में सिर्फ लखनऊ ही के हिस्से में आई थी। आजभी वहाँ सैकड़ों नवाब जूते चटकाते फिरते हैं। यद्यपि अंग्रेजी दौरे-दौरे ने लखनऊ को पूरा ईसाई बना दिया था, पर कुछ बुढ़ऊ खूसट अब भी गज-भर चौड़े पायचे का पायजामा और हल्की दुपल्ली टोपी पहनकर उसी पुराने ठाठ से निकलते हैं। ताजियेदारी के पुराने शाही जल्बों के दिन मानो लखनऊ कुछ देर के लिए भूल जाता है कि अब हम बीसवीं सदी के नवीन आलोक में है। इस समय भी उसमें वही शाही छटा देखने को मिलती है। आज भी वहाँ नवाब कनकव्वे और नवाब बटेर देखने को मिल सकते हैं। खम्मीरी तम्बाकू की भीनी महक में डूबकर प्रत्येक पुराना मुसलमान अब भी अपने ऊपर इतराता है।
लखनऊ की नवाबी की नींव नवाब सआदतखाँ बुर्दामुल-मुल्क ने डाली थी। उसका असली नाम मिरजा मुहम्मद अमीन था। उन दिनों दिल्ली के तख्त पर मुहम्मद शाह रंगीले मौज कर रहे थे। अवध तब शेखों ने बड़ा ऊधम मचा रखा था। उनकी देखा-देखी दूसरे जमींदार भी सरकश हो उठे थे। जो कोई अवध का सूबेदार बनकर जाता, उसे ही मार डालते थे। इसलिये बादशाह किसी जबरदस्त आदमी की तलाश में थे। सआदतखाँ और आसफजाह दो पराक्रमी सरदारों से बादशाह सलामत सशंक रहते थे और इन्हें दरबार से हटाना चाहते थे। अतः अब अवसर देखकर सआदत को अवध और आसफजाह को हैदराबाद दक्षिण की सूबेदारी देकर उन्होंने इन्हें दूर किया।
बादशाह ने मिरजा साहब को अवध की सूबेदारी और खिलअत तो दे
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