अपनी राजधानी लखनऊ से उठाकर फैजाबाद ले गये। यहाँ नवाब की सेना की छावनी थी। वह बुद्धिमान न थे, इसलिए उनका जीवन युद्ध और झगड़ों में बीता। उनके समय में शेख फिर सिर उठाने लगे। अन्य सरदार भीबागी हो गये।
उनमें एक गुण था कि वे एक नारी-व्रती थे। उनकी पत्नी नवाब सदरजहाँ बेगम युद्ध-स्थल में भी छाया की भाँति उनके साथ रहती थीं। वह सोलह वर्ष नवाबी भोगकर मरे।
उनके बाद मिरजा जलालुद्दीन हैदर नवाब शुजाउद्दौला के नाम से मसनद पर बैठे। वह चौबीस वर्ष की आयु के वीर युवक थे पर चरित्र ठीक न था। गद्दी पर बैठते ही किसी हिन्दू स्त्री का अपमान करने के कारण हिन्दू बिगड़ गये। परन्तु इनकी माता ने बहुत कुछ समझा-बुझाकर हिन्दू-रईसों को शान्त किया। उन्होंने बाईस वर्ष तक नवाबी की। उनके जमाने में दिल्ली की गद्दी पर बादशाह शाहआलम थे, और बंगाल की सूबेदारी के लिये मीरकासिम जी-जान से परिश्रम कर रहा था। शुजाउद्दौला बादशाह के वजीर और रक्षक थे। मीरकासिम ने उनसे सहायता मांगी थी। उस समय अंग्रेजी कम्पनी के अधिकारियों ने मीरजाफर को नवाब बनाया था। शुजाउद्दौला ने एक पत्र अंग्रेज कौंसिल को लिखकर बादशाह के अधिकार और उनके कर्तव्यों की चेतावनी दी, पर उसका कोई फल न देख, युद्ध की तैयारी कर दी। युद्ध हुआ भी, परन्तु अंग्रेजों की भेद नीति से शुजाउद्दौला की हार हुई, उसमें नवाब को हर्जाने के पचास लाख रुपये और इलाहाबाद तथा कड़े के जिले अंग्रेजों को देने पड़े। अंग्रेजों का एक एजेण्ट भी उनके यहाँ रखा गया और दोनों ने परस्पर के शत्रु-मित्रों को अपना निजू शत्रु-मित्र समझने का कौल-करार भी किया।
नवाब को इमारतों का भी बड़ा शौक था। दस लाख रुपये के लगभग वह इमारतों पर भी खर्च किया करते थे। इनकी बनाई इमारतें आज भी लखनऊ की रोशनी हैं। दौलतगंज या दौलतखाना, जहाँ नवाब स्वयं रहते थे-इन्द्र-भवन के समान शोभा रखता था।
उस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कौंसिल में वारेन हेस्टिग्स का दौर-दौरा था और मुगल-तख्त शाह आलम के पैरों के नीचे डगमगा रहा
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