पृष्ठ:आग और धुआं.djvu/१५८

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की बढ़ाईयों की चर्चा करता रहा। नवाब उस समय हल्के सरूर में थे, उन्होंने समझा कि यह अंग्रेज इस अंग्रेज औरत को बेचना चाहता है। नवाब ने तंग आकर अपने खिदमतगार से कहा-"बहुत हुआ, इस औरत को भगाओ।"

डलहौजी के पिता इसे अपना अपमान समझकर लौट आए। लार्ड डलहौजी अपने पिता के उस अपमान का बदला लेने के लिए हैदराबाद और बरार को हड़पकर अवध की ओर बढ़े।

वाजिदअली शाह युवा, उत्साही और बुद्धिमान शासक। उन्होंने अंग्रेजों की नीयत समझकर अपनी सेना को संगठित करना आरम्भ किया। वे नित्य ही परेड कराने लगे। लखनऊ दरबार की सारी पलटन प्रतिदिन सूर्योदय से पहले ही परेड-भूमि में एकत्र हो जाती। वाजिदअली भी फौजी वरदी पहनकर घोड़े पर सवार पहुँच जाते और दोपहर तक कवायद कराते। परेड में सैनिक की अनुपस्थिति अथवा विलम्ब उन्हें सहन नहीं था। उस पर भारी जुर्माना किया जाता था।

डलहौजी ने वाजिदअली को इस प्रकार की सैनिक व्यवस्था करने से मना किया। नवाब ने उसकी बात पर ध्यान न देकर अपना कार्य जारी रखा। परन्तु अन्त में डलहौजी की बात उन्हें माननी पड़ी। और वे निराश होकर दिन-रात महलों में पड़े रहने लगे।

महलों में सुन्दरी सुरा ने उनके खाली वक्त को पूरा किया। युवक हृदय की देश-भावना विषय-वासना में बदल गई।

लार्ड डलहौजी ने गवर्नर होते ही घोषणा कर दी कि नवाब शासन के योग्य नहीं, अतः अवध की सल्तनत कम्पनी के राज्य में मिला ली जाय। गवर्नर के हुक्म से रेजीडेण्ट उटरम महल में वह परवाना लेकर गया और उस पर नवाब को दस्तखत करने को कहा। नवाब ने इससे बिल्कुल इन्कार कर दिया। धमकी और प्रलोभन भी दिये गये। तीन दिन गुजर गये, पर नवाब ने दस्तखत करना स्वीकार न किया।

अंग्रेजों ने भेदनीति से काम लिया और नवाब के खिदमतगारों और मित्रों को लालच और भय से अपनी ओर किया। जब नवाब सुखसागर में डूब चुके तब उन्हें पकड़ने का जाल फैला दिया गया, जिसकी कल्पना भी

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