पृष्ठ:आग और धुआं.djvu/१६५

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चीत का रंग जमा नहीं। धीरे-धीरे मित्रगण उठ गए। रूपा ने एकांत पाकर कहा-

"क्या हुजूर को मुझसे कोई खास काम है?"

"मेरा तो नहीं, मगर कम्पनी बहादुर का है।"

रूपा काँप उठी। वह बोली-“कम्पनी बहादुर का क्या हुक्म है?"

"भीतर चलो तो कहा जाए।"

"मगर माफ कीजिए -आप पर यकीन कैसे...?"

"ओह। समझ गया। बड़े साहब की यह चीज तो तुम शायद पहचानती ही होगी?"

यह कहकर उन्होंने एक अंगूठी रूपा को दूर से दिखा दी।

"समझ गई। आप अन्दर तशरीफ लाइए।"

रूपा ने एक दासी को अपने स्थान पर बैठाकर अजनबी के साथ दुकान के भीतर कक्ष में प्रवेश किया।

दोनों व्यक्तियों में क्या-क्या बातें हुईं यह तो हम नहीं जानते, मगर उसके ठीक तीन घंटे बाद दो व्यक्ति काला लबादा ओढ़े दुकान से निकले, और किनारे लगी हुई पालकी में बैठ गए। पालकी धीरे-धीरे उसी भूतों-वाली मस्जिद में पहुँची। उसी प्रकार मौलवी ने कब्र का पत्थर हटाया, और एक मूर्ति ने कब्र के तहखाने में प्रवेश किया। दूसरे व्यक्ति ने एकाएक मौलवी को पटककर मुश्क बाँध लीं, और एक संकेत किया। क्षणभर में पचास सुसज्जित काली-काली मूर्तियाँ आ खड़ी हुईं और बिना एक शब्द मुँह से निकाले चुपचाप कब्र के अन्दर उतर गईं।

अब फिर चलिए अंनददेव के उसी रंग-मन्दिर में। सुख-साधनों से भरपूर वही कक्ष आज सजावट खत्म कर गया था। सहस्त्रों उल्कापात की तरह रंगीन हाँडियाँ, बिल्लौरी फानूस और हजार झाड़ सब जल रहे थे। तत्परता से, किन्तु नीरव बाँदियाँ और गुलाम दौड़-धूप कर रहे थे। अनगिनत रमणियाँ अपने मदभरे होंठों की प्यालियों में भाव की मदिरा उँडेल रही थीं। उन सुरीले रागों की बौछारों में बैठे बादशाह वाजिदअली शाह शराबोर हो रहे थे। उस गायनोन्माद में मालूम होता था, कमरे के जड़ पदार्थ भी मतवाले होकर नाच उठेगे। नाचनेवालियों के ठुमके और

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