परन्तु अंग्रेज इधर लल्लो-चप्पो कर रहे थे, उधर मद्रास से फौज मँगाने का प्रबन्ध कर रहे थे। मानिकचन्द ने नदी की ओर बहुत-सी तोपें सजा रखी थीं। पर सब दिखावा था। वे सब टूटी-फूटी थीं। किले में सिर्फ २०० सिपाही थे, और हुगली के किले में सिर्फ पचास । ये सब खबरें अंग्रेजों को मिल रही थीं।
क्लाइव और वाट्सन धीरे-धीरे कलकत्ते की ओर बढ़े चले आ रहे थे। दोनों 'चोर-चोर मौसेरे भाई' थे। कुछ दिन पहले मालाबार के किनारे पर युद्ध-व्यापार में दोनों ने खूब लाभ उठाया। मराठों ने उन दोनों की सहायता से स्वर्ण-दुर्ग को चट कर डाला था, और इसके बदले उन्हें १५ लाख रुपये मिले थे। उड़ीसा के किनारे पहुँचकर एक दिन जहाज पर दोनों में इस बात का परामर्श हुआ कि यदि बंगाल को हमने लूट पाया, तो लूट में से किसे कितना हिस्सा मिलेगा। बहुत वाद-विवाद के बाद दोनों में अद्धम-अद्धा तय हुआ।
जिन्होंने इन दोनों को बंगाल भेजा था-उन्होंने सिर्फ बंगाल में वाणिज्य-स्थापना करने की हिदायत कर दी थी, और बिना रक्त-पात के यह काम हो, इसीलिये निजाम से सिफारिशी चिट्ठियाँ भी सिराजुद्दौला के नाम लिखवाई थीं। पर ये लोग तो रास्ते ही में लूट के माल का हिसाब लगा रहे थे।
इधर पालताबंदर के अंग्रेजों की विनीत प्रार्थना से नवाब उन्हें फिर से अधिकार देने को राजी हो गया था। सब बखेड़ों का अन्त होने वाला था कि एकाएक नवाब खबर लगी, कि मद्रास से अंग्रेजों के जहाज फौज और गोला-बारूद लेकर पालताबन्दर आ गये हैं। इस खबर के साथ ही वाट्सन साहब का एक पत्र भी आया, जिसमें बड़ी हेकड़ी के साथ नवाब को अंग्रेजों के प्रति निर्दय-व्यवहार की मलामत की गई थी, और उन्हें फिर बसने देने और हर्जाना देने के सम्बन्ध में वैसी ही हेकड़ी के शब्दों में बातें लिखी थीं।
इनके साथ ही क्लाइव ने भी बड़ा अभिमानपूर्ण पत्र नवाब को लिखा। जिसमें लिखा-"मेरी दक्षिण की विजयों की खबर आपने सुनी ही होगी--मैं अंग्रेजों के प्रति किये गये आपके व्यवहार का दण्ड देने आया हूँ।"
२६